फिल्म समीक्षा : एक योद्धा शूरवीर
सर्वजीत सिंह चौहान
साल 2006 में आई राकेश ओमप्रकाश मेहरा की फ़िल्म ‘रंग दे बसंती’ की एक खास बात ये थी की फ़िल्म में वर्तमान और इतिहास को रिलेट करके पर्दे में उतारा गया था. ऐसा ही प्रयोग ‘एक योद्धा शूरवीर’ में किया गया है. फ़िल्म में इतिहास और वर्तमान को रिलेट करते हुए बहुत सारी पते की बातों की पोटली समाज के सामने रखने की कोशिश की गयी है. संतोष सिवान ने इसके पहले भी भारतीय इतिहास को शाहरुख को लेकर ‘अशोका’ के सहारे बड़े पर्दे में उतरा था.
फ़िल्म आज के समय से शुरू होती है. निर्वाणा नाम की एक विदेशी माइनिंग कंपनी केरल में स्थित एक गांव की जमीन को जमीन के मालिक से खरीदना चाह रही है. ज़मीन का मालिक कागज़ी कार्रवाई के लिए गांव आता है पर कुछ ऐसे लोग उसे बंदी बना लेते है जो नहीं चाहते की गांव की ज़मीन बिके. बंदी बनाने वाल लोग ही ज़मीन के मालिक को उसके पूर्वजो और केरल का इतिहास बताते है.
फ़िल्म 15वीं-16वीं शताब्दी में जा पहुँचती है. पुर्तगाली नाविक वास्को दा गामा भारत की खोज करते करते केरल के तट पर पहुँचता है. वो भारत की संस्कृति से रूबरू होता है और प्रभावित होता है. उसकी नज़र भारतीय मसालों खासकर काली मिर्च पर पड़ती है और वो उसके व्यापार के लिए वहां के राजा से अनुमति मांगता है पर अनुमति न मिलने पर वो अपने देश लौट जाता है. पर दोबारा एक बड़ी सेना लेकर वापस लौटता है और अत्याचारों का सिलसिला शुरू हो जाता है.
उसका सामना करते करते केलू के पिता की मौत केलू की आँखों के सामने हो जाती है. केलू( पृथ्वीराज) बदले की आग में जलता हुआ बड़ा होता है. उसका एक मुस्लिम मित्र(प्रभुदेवा) उसके साथ हर समय परछाई की तरह रहता है. समय बदलता है और वास्को दा गामा का बेटा भी बड़ा हो चुका है. उसका नाम एस्तविओ दा गामा है. चिरक्कल के राजा (अमोल गुप्ते ) का सहयोग पाके केलू अपने दोस्त की मदद से एस्तविओ को बंदी बना लाता है.
इस लड़ाई के बीच में ही उसकी मुलाकात आयशा अरक्कल(जनेलिया डी सूजा) से होती है. एस्तविओ के बंदी बनाने के बाद राजनीतिक और कूटनीतिक उठापटक शुरू होती है. अपने ही मंत्री और बेटे से धोखा खाया चिरक्कल का राजा अपने राज्य को जंग के मैदान में खड़ा हुआ पाता है. उधर केलू और आयशा मिलकर पुत्तूर गांव के लोगो को पुर्तगालियो से लड़ने के लिए तैयार कर लेते है और दोनों पक्षों में जंग शुरू हो जाती है और शुरू हो जाता है नृशन्स हत्याओं और मौतों का खेल.
फ़िल्म की कहानी सच्ची घटनाओं, फंतासी सोच और मसालों का मिला जुला रूप है जिसमे डायरेक्टर ने अपनी सुविधानुसार बदलाव कर लिए हैं. फ़िल्म ने आज के परिदृश्य को टटोलने और छूने की कोशिश की है. डायरेक्टर संतोष सिवान ने एक तारीफ के काबिल उम्दा कोशिश की है पर ज्यादा घटनाएं और ज्यादा चरित्र होने की वजह से फ़िल्म रोमांच से ज्यादा कंफ्यूज़न पैदा करती है. मिलते जुलते नामो और अनसुने शब्दों की वजह से दिमाग ज्यादा लगाना पड़ता है.
कहानी अच्छी चुनी है पर पेशगी ढीली है. गैर ज़रूरत के और लंबे दृश्यों के होने के कारण दर्शक फ़िल्म में घुसने में असहज महसूस करता है.
जनेलिया, आयशा के किरदार में एक चपल और तेज़तर्रार योद्धा के रूप में अच्छी लगी है. पृथ्वीराज बहादुर योद्धा के रूप में पूरी तरह से सहज दिखे है. पृथ्वी और जेनेलिया दोनो ने ही हर फाइट सीन में अपना सौ प्रतिशत दिया है. अफीमची राजा के किरदार को अमोल गुप्ते ने अपने ही अंदाज़ में निभाया है और वो अच्छे भी लगे है. छोटे छोटे रोल में आई विद्या बालन और तब्बू ने अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज़ कराई है. डांस करती हुई विद्या बालन मादक लगी है.
ज्यादातर फ़िल्म रियल लोकेशन्स में शूट हुई है. जंगल, गुफाएं और किले सब ओरिजिनल लगे है. स्लो मोशन और वी एफ एक्स के साथ फिलमाए गए ऐक्शन सीन हॉलीवुड फ़िल्म ‘300’ की याद दिलाते है. समुद्र और जहाज सब देखकर ऐसा लगता है जैसे किसी हॉलीवुड फ़िल्म का सीन हो. कुल मिलाके फ़िल्म को विहंगम बनाने की कोशिश में संतोष ने अपना सौ प्रतिशत दिया है. बेहतर टेक्नोलॉजी की मदद से 15 वी सदी को परदे पर जीवंत कर दिया गया है.
फ़िल्म खत्म होते – होते बहुत से संदेशों के साथ कुछ सवाल भी छोड़ जाती है. फ़िल्म ये सोचने में भी मज़बूर कर देती है कि आखिर क्यों हम 1000 सालों तक विदेशियों के गुलाम बने रहे है. फ़िल्म आशा जगाती है. ऐसा लगता है की पुर्तगाली हार जायेगे पर अफ़सोस, इतिहास को डायरेक्टर भी नहीं झुठला सकता. फ़िल्म का अंत ऐसी वास्तविकता है जो टीस देने वाला इतिहास बन चुका है.
क्यों देखे—
1. बाजीराव मस्तानी और बाहुबली के बाद विहंगम दुनिया को फिर से परदे में देखने के लिए.
2. ये बिलकुल भी उन साउथ इंडियन फिल्मो में से नहीं है जो आजकल चलन में है.फ़िल्म पूरी तरह से बॉलीवुड की उपज जैसी है.
3. विद्या बालन ,तब्बू,जेनेलिया और पृथ्वीराज के साथ साथ अमोल गुप्ते और प्रभुदेवा के शानदार अभिनय के लिए.
4. फ़िल्म भले ही मसाले के साथ बनी हो पर फिर भी अपने इतिहास को नज़दीक से देखने के लिए.
5. इतिहास में हुई गलतियों से सीख के अपने वर्तमान में सही सामाजिक और देशहित के निर्णय लेने के लिए.
क्यों न देखे—
1. कहानी अच्छी है पर पेश करने का तरीका हीलाहवाली भरा है.
2. फ़िल्म को हिंदी में डब करने के कारण संवाद अटपटे हो चले है जो कई बार समझ में नहीं आते.
3. ये हो सकता है की मूलभाषा में गानों में मधुरता हो पर डबिंग के कारण गानों ने अपना भाव खो दिया है इसलिए फ़िल्म में गाने बेमानी लगते है.
4. वर्तमान के सभी किरदार इतिहास में भी कोई न कोई किरदार निभाते हुए नज़र आये है पर क्या ज़रुरत थी की विद्या बालन को इतिहास के किरदार में एक नर्तकी बना के पेश किया जाय.
5. प्रभुदेवा अच्छे डांसर है पर फाइट और डांस में फर्क होता है.वो लड़ते वक्त फाइटर कम डांसर ज्यादा लगते है.
6. फ़िल्म में दो लव स्टोरी होने और बिना मतलब खीचने की वजह से फ़िल्म अपने मूल से भटक गयी है.