फिल्म समीक्षा: सरबजीत

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सर्वजीत सिंह चौहान

पंजाब के एक छोटे से गाँव में सरबजीत नाम का एक किसान रहता है.वो अपनी बड़ी बहन,बूढ़े बाप,बीवी और दो बच्चियों के साथ अपनी ज़िंदगी खुशी से जी रहा है.उसकी सिर्फ इतनी सी गलती की है कि उसने गलती से पाकिस्तान बॉर्डर लांघ दिया है.बॉर्डर पार जाते ही उसकी पहचान बदल गयी है.वो अब सरबजीत से रंजीत हो गया है जिसने पाकिस्तान में पाँच सीरियल हम ब्लास्ट किये हैं और रॉ का एजेंट है.जहाँ एक तरफ उसका पूरा परिवार उसके घर वापसी की बाट जोह रहा है वहीं दूसरी तरफ वो पाकिस्तान की जेल में थर्ड डिग्री से भी ज्यादा खतरनाक दर्द झेल रहा है.कमी सिर्फ इतनी है कि उसे मौत नहीं आ रही.उसकी बहन दलबीर उसे उस नर्क से निकालकर लाने के लिये एड़ी चोटी कै दम लगा देती है.कोशिशें रंग भी लाती है. सरबजीत कई बार जेल से बाहर कदम रखकर खुली हवा में साँस लेने ही वाला होता है कि अचानक से कुछ ऐसा होता है कि उसकी मुश्किलें कई गुना और बढ़ जाती हैं.उसकी बहन ने कोई कसर नहीं छोड़ी है.

छोटे अफसरों से लेकर पी.एम.ओ तक होकर आती है पर घुमा फिराकर वही ढाक के तीन पात.20 साल का समय निकल चुका है.एक पीढी जवान हो चुकी है तो एक बूढ़ी.पर अभी भी पाकिस्तानी सियासत सरबजीत को आतंकवादी ही मानती है.सियासत की समस्या है कि वो अपना राजनीतिक फायदा देखती है,अपनी गलती कभी नही मानती.दलबीर से लेकर मीडिया तक सबने कोई कसर नहीं छोड़ी है.पर इस तरफ ताज हमले के दोषी कसाब की फाँसी सरबजीत के लिये मौत की सौगात लेकर आती है.सरबजीत अपने देश वापस तो लौटता है पर बिना सांसों के.ये कहानी हर भारतीय को पता है.इसी सच्ची घटना पर फिल्म बनाकर डायरेक्टर उमंग कुमार ने शानदार कोशिश की है.उन्होंने इसके पहले दर्शकों को मैरीकॉम जैसी फिल्म भेंट की थी.सरबजीत का डायरेक्शन मैरीकॉम जितना उम्दा तो नहीं है पर उतना बुरा भी नहीं जितना बाकी के समीक्षकों कि लगा है.


ऐक्टिंग के मामले में सरबजीत बने रणदीप हुड्डा ने अपनी जान लगा दी है.जेल के अंदर उनका घावों से भरा हुआ कमजोर शरीर,गंदे दांत और बड़े काले नाखून और दर्द से भरा हुआ चेहरा,सरबजीत के दर्द का एहसास दिलाता है.रणदीप की संवाद अदायगी और चेहरे के एक्सप्रेशन का मेल इतना अच्छा है कि अगर आप थोड़ा सा भी इमोशनल हैं तो उनकी मेहनत आपको रुलायेगी ज़रूर. ग्रामीण पंजाबी युवक को उन्होंने हूबहू पर्दे पर उतार दिया है.उनकी पंजाबी टोन के सारे संवादों की अदायगी सुनकर ऐसा लगता है जैसे उन्होंने पंजाबी में पी.एच.डी की हो.

अब बात करें फिल्म की लीड कलाकार ऐश्वर्या राय की.उन्होंने गंदी ऐक्टिंग नहीं की है पर उनका फिल्मी कैरियर 20 साल से ऊपर का हो चुका है .इसको ध्यान में रखें तो उनके इस परफॉर्मेंस को अच्छा नहीं कहा जा सकता है.कोशिश भरपूर की है पर उनके बोलने पर नाटकीयता झलकती है.सरबजीत की पत्नी के किरदार में रिचा चड्ढा कुछ ऐसी रच बस गयी हैं कि ये देखकर लगता है कि उमंग कुमार ने उन्हें लीड रोल न देकर बड़ी गलती की है.सरबजीत की छोटी बेटी पूनम(अंकिता श्रीवास्तव) ने कम स्क्रीन टाइम होने के बावजूद ध्यान खींचा है.मैरी कॉम से डेब्यू करने वाले दर्शन कुमार ने अवैस शेख के किरदार मे अच्छा काम किया है.

सोनू निगम की आवाज में दर्द और अरिजीत का गाया हुआ गाना इतने सिचुएशनल है कि कहानी की जरूरत बन गये हैं.बाकी के गाने बॉलीवुडिया दबाव की झलक दिखाते हैं.लोकेशन्स रियल हैं.गाँव और पाकिस्तान के दृश्य सच जान पड़ते हैं.

क्यों देखें-

1- अज़हर जैसी बायोपिक से ऊब चुके हों तो ये अच्छा विकल्प है क्योंकि फिल्म में सच्ची घटना और उसके दर्द को सही मायने में दिखाया गया है.

2- इमोशनल सीन्स इतने स्ट्रॉंग है कि आप पत्थर दिल भी होंगे तो भी आँखें नम ज़रूर हो जायेंगी.

3- रणदीप एक शानदार कलाकार हैं.उनकी कलाकारी को मील का पत्थर बनते हुये देखने के लिये.

4- एक छोटी सी बदबूदार बंद कोठरी में सरबजीत कैसे जिया होगा …उस दर्दनाक मंज़र को फील करने के लिये.

5- ये बात सिर्फ सरबजीत की नहीं है.ये भारत पाकिस्तान की जेलों में बंद उन सैकड़ों मासूमों की कहानी भी है जो बिलावजह नर्क से भी बदतर ज़िंदगी जीने के लिये मज़बूर हैं. ऐसे ज्वलंत मुद्दे पर फिल्म बनाकर उमंग कुमार ने काबिलेतारीफ कोशिश की है.ऐसी फिल्म बनाकर उन्होंने सरबजीत को फिर से लोगों के बीच ज़िंदा कर दिया है वरना लोग शायद इस घटना को भी भूल जाते.

क्यों न देखें-

1- अगर गंभीर और ज्वलंत मुद्दों से भागने की आदत हो.

2- अगर सरबजीत फिल्म की नासमझी से भरी हुयी ऐसी फिल्म समीक्षा पढ़ ली हो जिसमें फिल्म की सिर्फ बुराई ही की गयी हो.

3- ये बात समझ से परे है कि जो समीक्षक तेरा सुरूर जैसी घटिया फिल्म को ठीक फिल्म की श्रेणी में रखकर समीक्षा करते हैं वही समीक्षक ऐसी उद्देश्यपरक फिल्म को औसत दर्जे की फिल्म मानकर इतिश्री क्यों कर लेते हैं?अगर आप ऐसे समीक्षकों से प्रभावित हैं तो फिल्म मत देखियेगा.

4- फिल्म में कुछ दृश्य अति नाटकीय बन गये हैं. आप के खिलाफ गुस्से से भरी भीड़ को आप अचानक से खड़े होकर ऐसा कुछ बोल दें कि सब काबू हो जायें,ऐसा मसाला फिल्मों में होता है सच में नहीं.ऐश्वर्या के कई सीन ऐसे ही फिल्मी हो गये हैं और खलते है.

5- डायरेक्टर ने ऐशवर्या को हीरो बनाने के चक्कर में रणदीप के रोल में कंजूसी कर के फिल्म कमजोर कर दी है.फिल्म और बेहतर बन सकती थी.

लेखक www.faltukhabar.com के फिल्म पत्रकार हैं

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