जब गांधी जी को दूध में दिया गया था जहर
आज मोहनदास करमचंद गांधी, जिन्हें लोग प्यार से बापू कहते हैं की 68वीं पुण्यतिथि है. रविंद्रनाथ टैगोर ने बापू को महात्मा की उपाधि दी थी. भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधीजी का जीवन एक खुली किताब जैसा था, उनका निजी कुछ नहीं था, लेकिन गांधी जी की जिंदगी में एक ऐसी बात भी थी, जिसे शायद ही कोई जानता हो. दरअसल वह बात है बापू को मारने के लिए रची गई एक साजिश के बारे में.
दरअसल, बापू का जन्मदिन 2 अक्टूबर, 1869 और उनकी मृत्यु की तिथि 30 जनवरी, 1948 के बारे में सभी जानते हैं और साथ ही जानते हैं उनकी हत्या करने वाले शख्स नाथूराम गोड्से के बारे में. यह सभी को पता है कि आजाद होने के बाद नाथूराम गोड्से की आंखों में बापू चुभने लगे थे, शायद इसलिए गोड्से ने गांधी की हत्या कर दी, लेकिन बहुत ही कम लोग जानते होंगे कि बापू अंग्रेजों को भी फूटी आंख नहीं सुहाते थे और उन्होंने गांधी जी को मारने की साजिश भी रची थी. अंग्रेजों द्वारा गांधी जी को मारने के लिए रची गई साजिश से उन्हें बचाने वाले एक देशभक्त बावर्ची के बारे में शायद ही कोई जानता होगा और यह भी बहुत ही कम लोग जानते होंगे कि उन्हें मारने की साजिश आखिर किस अंग्रेज ने रची?
भारतीयों की छोटी-बड़ी समस्याओं के लिए गांधीजी हमेशा तैयार रहते थे. अपने रास्ते से उन्हें दूर करने के लिए अंग्रेजो ने कई प्रयास किए थे. दरअसल, ये बात है 1917 की, जब नील के किसानों का आन्दोलन चरम सीमा पर था, अंग्रेज उनके ऊपर आतंक मचाए हुए थे. किसानों के आन्दोलन के समर्थन में गांधी जी और डॉ. राजेन्द्र प्रसाद बिहार के मोतिहारी के दौरे पर गए हुए थे. बापू के दक्षिण अफ्रीका से वापस लौटने के बाद यह पहला जन-आन्दोलन था, जिसके नेतृत्व स्वयं गांधी जी ने संभाली थी. यही वह जगह थी जहां से उन्होंने पहली बार अंग्रेजों के सामने विरोध का आवाह्न किया था. उस समय मोतिहारी के इंडिगो प्लांटेशन के मैनेजर इरविन था. इसी ने रची थी महात्मा गांधी के हत्या की साजिश.
गांधी जी के मोतिहारी पहुंचने की खबर मिलते ही इरविन ने उन्हें और डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को भोजन के लिए आमंत्रित किया. भोले बापू ने उनका निमंत्रण स्वीकार भी कर लिया. वे इरविन के घर पर पहुंचे उसके पहले ही इरविन ने अपने बावर्ची बटक मियां को दूध में जहर मिला कर गांधी जी को पिला देने का हुक्म दिया. इरविन के डर के कारण उन्होंने दूध में जहर मिला तो दिया पर उनका दिल रो रहा था, और जब दूध का प्याला लेकर वे गांधी जी के पास पहुंचे तब उन्होंने दूध में जहर होने की बात से बापू को चुपके से अवगत कर दिया, तुरंत ही उनका इशारा समझते हुए बापू और राजेन्द्र प्रसाद ने दूध पीने से इंकार कर दिया और इसके साथ ही इरविन की साजिश नाकामयाब हुई. बटक मियां के इस कदम से दोनों की जान तो बच गई, लेकिन उन्हें अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा. नौकरी जाने के बाद बटक मियां के दिन बेहद फटेहाली और तंगहाली में गुजरे. देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद इस पूरे वाकए के गवाह थे.
भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ये घटना से परिचित थे. इस घटना के तीस साल बाद हमारा देश भारत आजाद हुआ. 1950 में जब वे चंपारण के दौरे पर थे, उस वक्त भी उन्हें ये बात याद थी की बटक मियां ने गांधी जी की जान बचाई थी. उन्होंने सब के सामने बटक मियां का सम्मान किया. बटक मियां बेहद गरीबी में जीवन व्यतीत कर रहे थे. उनके हालात को देखते हुए डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने पैंतीस बीघा जमीन उनके नाम करने का आदेश किया. पर कमाल था कि देश के प्रथम राष्ट्रपति का वह आदेश सरकारी फाइलों तक ही सीमित रह गया. बटक मियां ने कई प्रयास किए पर उन्हें अपना हक मिलने से रहा. आलम यह हुआ कि राष्ट्रपिता और एक महामानव गांधी जी का जीवन बचाने वाले बटक मियां अपने हक के लिए संघर्ष करते हुए ही 1957 में मृत्यु के आगोश में चले गए.
उनके देहांत के तकरीबन चार साल बाद उनके परिवार को जमीन दी तो गई पर दिए गए वचन से बहुत ही कम. बटक मियां के परिवार को लगभग तीन बीघा जमीन पश्चिमी चंपारण और दो एकड़ जमीन पूर्वी चंपारण में आवंटित की गई. बटक मियां का परिवार अब भी तीन दिसंबर उन्नीस सौ सत्तावन को राजेंद्र बाबू के एडिशनल प्राइवेट सेकेट्री विश्वनाथ वर्मा के खत की बिना पर उम्मीद पाले बैठा है. उस चिट्ठी में बटक मियां के इकलौते बेटे महमूद जान अंसारी को यह सूचित किया गया था कि महामहिम ने बिहार सरकार को उन्हें जमीन देने का हुक्म दिया है. लेकिन दु:ख की बात यह है कि जान अंसारी को भी उनके जीवनकाल में यह जमीन हासिल नहीं हो पाई और दो हजार दो में उनका भी निधन हो गया. अब बटक मियां की तीसरी पीढ़ी भी जमीन की उम्मीद लगभग छोड़ चुकी है.
2004 में बिहार विधानसभा में ये बात रखी गई. वहां के सांसद जाबिर हुसैन के मुताबिक उन्होंने पश्चिम बिहार के बेतिया गांव में बटक मियां की याद में एक संग्रहालय बनवाया है, पर बटक मियां तो दुखी होते हुए ही दुनिया छोड़कर चले. झारखंड के एक स्वतंत्र पत्रकार ने बताया कि बटक मियां के पोते असलम अंसारी के साथ दो तीन साल पहले बात करने पर उन्होंने बताया था कि मेरे दादा जी ने हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को जहर वाली बात बता देने की हकीकत पता चलते ही इरविन ने उनका जीना हराम कर दिया था. यहां तक कि हमारे परिवार को गांव से निकल जाने को मजबूर कर दिया था.
2010 में भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा देवीसिंह पाटिल ने उन्हें उनका हक दिलाने के लिए भी आश्वस्त किया था, लेकिन आज तक बटक मियां के परिवार को ये जमीन नहीं मिल पाई. सोचने वाली बात ये है कि ऐसे अनेक सरकारी कार्यक्रम और योजनाएं हैं, जो कि सिर्फ कागज तक ही सीमित रह गई हों. अब अगर जमीं दी भी जाती है तब भी बटक मियां तो अपने हक की लड़ाई लड़ते हुए जन्नत नशीं हो चुके हैं. ध्यान देने वाली बात यह है कि अगर बटक मियां जैसे देशभक्त ने गांधी जी कि जान बचाई नहीं होती तो क्या स्वतंत्रता आन्दोलन का जन्म हुआ होता? क्या हम आजाद भारत में सांस ले रहे होते? आज हर साल हम गांधी जी के जन्मदिवस और उनकी पुण्यतिथि पर उनको याद करते हैं, लेकिन उनकी जान बचाने वाले को न हम याद करते हैं और न ही उनसे किए गए वायदे को निभाने में सरकार की कोई रुचि दिखाई देती है.